Sunday 27 September 2015

सारिवा

सारिवा (हेमिडेस्मस इण्डिक)
रासायनिक संगठन-

कर्नल चोपड़ा के अनुसार सारिवा की जड़ के सक्रिय पदार्थों के मुख्य हैं-एक इसेन्शियल ऑइल, एक एन्जाइम और एक सैपोनिन । सारिवा मूल में लगभग 0.22 प्रतिशत उत्पत तेल होता है । इस तेल का 80 प्रतिशत भाग एक सुगंधित एल्डीहाइड के रूप में होता है, जिसे 'पैरानेथाक्सी सेलिसिलिक एल्डीहाईड' नाम दिया गया है । यही सारिवा की मूल को तोड़ने पर पाई जाने वाली सुगंध का प्रधान कारण है । जड़ के अन्य घटक हें बीटा साइटो स्टीरॉल, एल्फा और बीटा एसाइरिन्स जो मुक्त व ईस्टर दोनों ही रूपों में विद्यमान होते हैं । इसके अतिरिक्त ल्यूपियोल, टेट्रासाइक्लीक ट्राई स्र्पीन अल्कोहल, रेसिन अम्ल, वसा अम्ल टैनिन्स, पैपोनिन, एकग्लाइकोसाइड व कीटोन्स भी पाए जाते हैं । एक शुद्ध कार्य सक्षम औषधि में 2 प्रतिशत से अधिक कार्बनिक पदार्थ तथा 4 प्रतिशत से अधिक भस्म नहीं होना चाहिए । 

आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग-निष्कर्ष-

सारिवा को इण्डियन फर्मेकोपिया से मान्यता प्राप्त औषधियों में गिना जाता है । ब्रिटिश फर्मेकोपिया में भी इसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । वेल्थ ऑफ इण्डिया के विद्वान लेखकों के अनुसार यह विशुद्धतः एक रक्त शोधक औषधि है । यह स्वेदजनक तथा मूत्रल भी है । इस कारण यह कुपोषण जन्य शोथ, पुरानी गठिया, पेशाब के रोगों, कुष्ठ व चर्म रोगों में लाभ करती है । अमेरिकन औषधि (सारिवा) सरसेपेरिल्ला कही जाती है । भारतीय औषधि इससे गुणों में कहीं अधिक श्रेष्ठ है, ऐसा डॉ. नादकर्णी का अभिमत है । यह उपदंश नामक त्वचा व्याधि में दूसरी एवं तीसरी अवस्था में भी लाभकारी प्रभाव दिखाती है । जोड़ों आदि की सूजन घटाती तथा मूत्र की मात्रा को तीन गुना तक कर देती है । रकत व्यापी विष को यह मूत्र मार्ग से बाहर निकाल देती है । 

होम्योपैथी में इस औषधि के मदरटिंक्चर का प्रयोग अनेक प्रकार के चर्म रोगों, उपदंश तथा रक्त दोष जन्य व्याधियों के निवारणार्थ किया जाता है । भारतीय जाति हेमीडेसमस को सरसापेरिल्ला से अधिक वरीयता दी जाती है, क्योंकि उसमें अधिक गुण जर्मन चिकित्सकों ने पाए हैं । यूनानी मतानुसार सारिवा ठण्डी और तर औषधि है । यह पेशाब का बनना बढ़ाती है, बढ़े हुए को बाहर निकालती है, पसीना लाकर रक्त का शोधन कर देती है । हकीम दलजीतसिंह के अनुसार यह जीवन की चयापचय क्रिया को बढ़ाती है । इस प्रभाव के कारण यह चर्म रोगों फिरंग, श्वेत प्रदर, आमवात, व्रण तथा बिच्छूदंश आदि में लाभ करती है । शरीर की दुर्गंध दूर होती है और सारे शरीर में रक्त प्रवाह बढ़ता है । 

प्रयोज्य अंग-

इस औषधि की जड़, जड़ की छाल का चूर्ण व ताजा रस प्रयोग किया जाता है । चूँकि इसका वीर्य उड़ने वाला तेल होता है, इसकी जड़ा का क्वाथ नहीं बनाया जाता । क्वाथ बनाने पर सारे गुण नष्ट हो जाते हैं । 

मात्रा-

कल्क 5 से 10 ग्राम, फाण्ट 50 से 100 मिली लीटर तथा चूर्ण 3-6 ग्राम । 

निर्धारणानुसार उपयोग-

समस्त रक्त विकारों तथा त्वचा विकारों के लिए सारिवा एक महत्त्वपूर्ण औषधि है । 50 ग्राम औषधि को दिन में 4-5 बार विभाजित कर लिया जाए तो यह इनमें तुरंत आराम देती है । फोड़े-फुन्सियों में इसका फाण्ट प्रातः-सायं लिया जाता है । जब मूत्र की मात्रा कम हो, रंग गहरा हो व शोथ सारे शरीर पर हो तो सारिवा चूर्ण को गोदुग्ध के साथ लेने पर तुरंत आराम मिलता है । सारिवा जड़ा का हिमनिष्कर्ष (ठण्डे जल में जड़ को रात भर भिगोकर निकाला गया सत्व) भी 2 से 3 औंस प्रतिदिन दूध के साथ लेने पर तुरंत लाभ देता है । 

यह रसायन और विषनाशक साथ-साथ होने के नाते उत्तम रक्तशोधक व प्रतिरोधी सामर्थ्य बढ़ाने वाला माना गया है । रक्त विकार, वातरक्त, जीर्ण आमवात, एलीफेण्टिएसिस तथा थाइराइड ग्रंथि के गॉइटर रोगों में इस औषधि का कल्क निर्धारित मात्रा में लेने पर शीघ्र आराम देता है । बार-बार गर्भपात होने के पीछे जो रक्त दोष मूल कारण होता है, उसमें इसके प्रयोग से तुरंत लाभ मिलता है । मुख से ग्रहण किए गए, विष अथवा जीव-जन्तु के काटने पर हुए संस्थानिक प्रभावों का यह नाश करता है । कुष्ठ रोग, सामान्य ज्वर तथा पीलिया रोग में भी यह लाभ पहुँचाता है । 

अन्य उपयोग-

बाह्य प्रयोगों में आँख की लाली आदि संक्रमक रोगों में रस डालते हैं तथा शोथ संस्थानों पर लेप करते हैं । यह अग्नि दीपक पाचक है । अरुचि व अतिसार में लाभ पहुँचाती है । खाँसी सहित श्वांस रोगों में यह उपयोगी है । महिलाओं के प्रदर, डी.यू.वी. (अनियमित मासिक स्राव) आदि रोगों में लाभकारी है । सामान्यतया यह त्रिदोष नाशक है । इसे किसी भी प्रकार के ज्वर प्रधान रोगों में निवारणार्थ भी तथा जीवनी शक्ति बढ़ाने हेतु भी प्रयुक्त किया जा सकता है ।

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