Saturday 3 October 2015

केवांच

रंग : केवांच की फली बाहर से हरे एवं बीच में काले रंग की होती है।

स्वाद : यह खाने में चटपटी होती है।

स्वरूप : केवांच की बेल होती है जिसमें सेम की तरह फली लगती है। अंतर सिर्फ इतना होता है कि केवांच की फलियों पर छोटे-छोटे रोएं होते हैं। जिसको छूने से त्वचा पर खुजली पैदा होती है।

प्रकृति : इसकी प्रकृति गर्म होती हैं।

हानिकारक : केवांच का अधिक मात्रा में उपयोग करना बवासीर के रोगियों के लिए हानिकारक हो सकता है।

दोषों को दूर करने वाला : इसमें गुलरोगन मिलाकर उपयोग करना चाहिए। इससे केवांच में मौजूद दोष नष्ट होते हैं।

तुलना : इसकी तुलना हम उटंगन के बीजों से कर सकते हैं।

मात्रा : इसका प्रयोग 9 ग्राम की मात्रा में किया जाता है।

गुण : केवांच शरीर में धातु को बढ़ाता है और शरीर को शक्तिशाली बनाता है। यह कफ और रक्त-पित को खत्म करता है। इसके पत्तों के संग कालीमिर्चमिलाकर खाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं। गर्मी से होने वाले रोगों में इसके पत्तों का रस पीने से आराम मिलता है।

विभिन्न रोगों में उपचार :

1. नपुंसकता: केवांच के बीजों की मींगी निकालकर चूर्ण बना लें और यह चूर्ण 2 से 6 ग्राम की मात्रा में रात को सोते समय मिश्री मिले गर्म दूध के साथ पीएं। इससे नपुंसकता दूर होती है।

2. दस्त: केवांच की सब्जी को दस्त रोग में रोगी को खिलाने से दस्त का बार-बार आना ठीक होता है।

3. खूनी अतिसार: केवांच (कपिकच्छू) की जड़ का रस 10 मिलीलीटर की मात्रा में सेवन करने और इसी की जड़ को दूध के साथ घिसकर पीने से दस्त के साथ खून आना बंद होता है।

4. कमजोरी: केवांच की जड़ का काढ़ा 40मिलीलीटर सुबह-शाम सेवन करने से स्नायु की कमजोरी मिटती है। इसकी जड़ का रस 10-20मिलीलीटर सुबह-शाम पीने से कमजोरी भी दूर होती है।

5. पक्षाघात (लकवाफालिस): लगभग 20 से 40मिलीलीटर केवांच की जड़ का काढ़ा या 10 से 20मिलीलीटर इसकी जड़ का रस सुबह-शाम लकवा से पीड़ित रोगी को पिलाने से रोग ठीक होता है।

6. भ्रम एवं रोग भ्रम: लगभग 20 से 40 मिलीलीटर केवांच की जड़ का काढ़ा या रस 10 से 20मिलीलीटर सुबह-शाम रोगी को देने से भ्रम रोग पूरी तरह से ठीक हो जाता है।

7. प्रलाप या बड़बड़ाना: लगभग 20 से 40मिलीलीटर केवांच (कपकच्छु) की जड़ का काढ़ा या10 से 20 मिलीलीटर जड़ का रस प्रलाप या बड़बड़ाने के रोगी को देने से रोग ठीक होता है

कौंच

परिचय :

          कौंच की बेल होती है और यह भारत के गर्म स्थानों पर अधिक पाई जाती है। यह एक प्रकार की जंगली औषधि है। कौंच की बेल जून-जुलाई के महीने में पैदा होकर सितम्बर-नवम्बर में फूलती है। इसकी बेल झाड़ियों और पेड़ों पर फैलती है। इसके पत्ते 6 से 9 इंच लंबे व 3 पत्तों में होते हैं। इसके फूल एक से डेढ इंच लंबेनीले या बैंगनी रंग के होते हैं। इसकी फली 2 से 4 इंच लंबी और लगभग आधी इंच चौड़ी होती है। फलिया गुच्छों में लगती है जिस पर सुनहरे व बारीक रोंए होते हैं। इसकी फली के रोंए त्वचा पर लगने से तेज खुजली होती है जिसे खुजलाने से जलन पैदा होती है। इसके फली के अन्दर बीज होते हैं और इसका छिलका सख्त होता है। इसके बीजों को ही औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।

आयुर्वेद के अनुसार : कौंच की गिरी स्वाद में कड़वी,मीठीतीखीगर्म और मन व मस्तिष्क को शांत करने वाली होती है। इसका फल मीठा होता है। यह धातु को बढ़ाने वालाबलदायकपाचनशक्ति को बढ़ाने वालावातपित्तकफ और खून की खराबी को दूर करने वाला होता है। इसमें यौन रोग को दूर करने की शक्ति होती है। यह दर्दकमजोरीपेशाब की बीमारी,दिल की बीमारीगर्भाशय की कमजोरीआंखों की रोशनीवात रोगचेहरे की सुन्दरताप्रदर रोगप्रसूता रोग आदि में भी गुणकारी है। इसे महिला या पुरुष आराम से खा सकते हैं।

यूनानी चिकित्सकों के अनुसार : कौंच की गिरी तीसरे दर्जे की गर्म होती है। यह विरेचकसेक्स पावर को बढ़ाता है। बिच्छू के जहर पर भी यह फायदेमंद होता है। बवासीर के रोगी को यह हानिकारक होता है।

वैज्ञानिकों के अनुसार : कौंच के बीजों का रासायनिक विश्लेषणों से पता चला है कि कौंच में विभिन्न प्रकार की विटामिन्स होते हैं।

कौंच में पाए जाने वाले तत्त्व व मात्रा :

तत्त्वमात्रा प्रोटीन 25.03 प्रतिशत आर्द्रता 9.1 प्रतिशतरेशा 6.75 प्रतिशत खनिज 3.95 प्रतिशत फास्फोरसथोड़ी मात्रा में कैल्शियम थोड़ी मात्रा में लौहा थोड़ी मात्रा में मैंगनीज थोड़ी मात्रा में गंधक थोड़ी मात्रा मेंग्लुटाथायोन थोड़ी मात्रा में ग्लुकोसाइड थोड़ी मात्रा मेंलेसिथिन थोडी मात्रा में निकोटिन थोडी मात्रा मेंगैलिक ऐसिड थोड़ी मात्रा में

विभिन्न भाषाओं में कौंच के नाम :

संस्कृत   कपिकच्छुआत्मगुप्ता। हिन्दी        केवांचकौंच।अंग्रेजी        काउहैज प्लांट। बंगाली        आलंकुषी।मराठी        कुहिलीवे बीज। गुजरती   कोंचा।तैलगी        पिप्ली अडूगु। लैटिन        म्युकना प्रुरिटा।

मात्रा : कौंच के बीजों का चूर्ण 3 से 6 ग्राम और जड़ का काढ़ा 50-100 मिलीलीटर की मात्रा में प्रयोग किया जाता है।

विभिन्न रोगों में उपचार :

1. बिच्छू का डंक: मिट्टी के तेल या पानी में कौंच के बीज की गिरी को घिसकर डंक वाले स्थान पर लगाने से बिच्छू का जहर उतर जाता है।

2. घाव: कौंच के पत्तों को पीसकर घाव पर लेप करने से और पट्टी बांधने से घाव ठीक होता है।

3. लिंग का ढीलापन: कौंच की जड़ को अपने पेशाब में घिसकर लिंग पर लेप करने से लिंगा का ढीलापन दूर होता है।

4. श्वेत प्रदर: कौंच के बीजों की गिरी का आधा चम्मच चूर्ण एक चम्मच शहद के साथ मिलाकर प्रतिदिन सुबह-शाम सेवन करने लाभ श्वेत प्रदर रोग में लाभ मिलता है।

5. मूत्र रोग: कौंच के बीजों की गिरी का आधा चम्मच चूर्ण एक कप पानी के साथ दिन में 2 बार खाने से मूत्र रोग ठीक होता है।

6. बांझपन: कौंच के बीजों की गिरी और जड़ का चूर्ण बराबर मात्रा में मिलाकर 1-1 चम्मच की मात्रा में दिन में 3 बार कुछ सप्ताह तक सेवन करने से बांझपन दूर होता है।

7. बुखार: यदि कोई रोगी तेज बुखार से पीड़ित हो तो कौंच की जड़ का काढ़ा 1-1 कप की मात्रा में दिन में 2 से 3 बार पिलाएं। इससे बुखार में जल्दी आराम मिलता है।

8. नपुंसकता:

कौंच के बीजों का चूर्ण, तालमखाना व मिश्री बराबर मात्रा में लेकर 3 ग्राम की मात्रा में प्रतिदिन दूध के साथ खाने से नपुंसकता दूर होती है।कौंच के बीजों की गिरी और तालमखाने के बीज 25-25 ग्राम की मात्रा में लेकर पीसकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण में 50 ग्राम मिश्री मिलाकर प्रतिदिन 2 चम्मच की मात्रा में दूध के साथ खाने से नपुंसकता दूर होती है।

9. जलोदर (पेट में पानी भरना): कौंच की जड़ को पीसकर लेप बनाकर कलाई पर बांधने से जलोदर रोग ठीक होता है और पेट का दर्द भी शांत होता है।

10. गिल्टी (ट्यूमर) : कौंच के बीजों को पानी में पीसकर दिन में 2 से 3 बार गिल्टी पर लेप करने से गिल्टी ठीक होती है।

11. वात रोग : कौंच के बीजों का खीर बनाकर खाने से वात रोग दूर होता है।

12. योनि का फैल जाना : कौंच की जड़ का काढ़ा बनाकर कुछ दिनों तक योनि को धोने से योनि सिकुड़ जाती है।

13. बेहोशी : कौंच की सूखी फली को बेहोश व्यक्ति के शरीर पर रगड़ने से बेहोशी दूर होती है। बेहोशी दूर होने पर गाय के घी से रोगी के शरीर की मालिश करें। इससे कौंच का जहर उतर जाता है।

14. उपदंश: कौंच के बीजों को पानी में पीसकर दिन में 2 से 3 बार लेप करने से उपदंश रोग ठीक होता है।

15. श्वास या दमा रोग: शहद व अदरक का रस 1-1 चम्मच और कौंच के बीजों की गिरी आधी चम्मच। इन सभी को एक साथ पीसकर चूर्ण बना लें और इसका सेवन सुबह-शाम करें। इससे दमा रोग में आराम मिलता है।

16. शरीर को शक्तिशाली बनाना:

कौंच के बीज और गोखरू के चूर्ण को मिश्री के साथ मिलाकर दूध के साथ पीने से शारीरिक शक्ति बढ़ती है।कौंच के बीज और जड़ को समान मात्रा में लेकर इनको पीसकर चूर्ण बना लें और इसमें बराबर मात्रा में चीनी मिलाकर एक शीशी में भरकर रख लें। यह चूर्ण 10 ग्राम की मात्रा में प्रतिदिन दूध के साथ लेने से शारीरिक शक्ति बढ़ती है।

Sunday 27 September 2015

ममीरा

ममीरा (gold thread cypress)

ममीरा हिमालय के क्षेत्र में पाया जाता है इसकी पीली रंग की जड़ होती है . इसे वचनागा भी कहते हैं .इसके फूल मेथी के फूलों जैसे होते हैं . आँखों में लाली हो या कम दीखता हो या फिर infection हो गया हो तो शुद्ध ममीरे की जड़ घिसकर आँख में अंजन कर सकते हैं . कमजोरी हो तो इसके साथ शतावर , मूसली और अश्वगंधा मिलाकर लें .आँतों में या पेट में infection हो तो इसकी जड़ कूटकर रस या काढ़ा लें . 

दांत दर्द हो या मुंह में घाव और छाले हो गये हों तो इसकी पत्तियां चबाएं . इससे मसूढ़े भी मजबूत होंगे . कहीं पर घाव हो तो इसकी पत्तियां कूटकर घाव को धोएं . घाव में कुटी हुए पत्तियां लगा भी दें . बार बार बुखार आता हो तो इसकी जड़ , 1-2 काली मिर्च , तुलसी और लौंग मिलाकर काढ़ा बनाकर पीयें . Lever की समस्या में सुबह शाम इसकी जड़ का काढ़ा लें . चेहरे पर मुहासे हों तो जड़ घिसकर लगायें

बबूल

बबूल या कीकर के फूल ग्रीष्म ऋतु में आते हैं और फल शरद ऋतु में आते हैं . दांतों को स्वस्थ रखने के लिए इसकी दातुन बहुत अच्छी मानी जाती है . मसूड़े फूल गये हों तो इसकी पत्तियां चबाकर मालिश करने के बाद थूक दें . इससे मुंह के छाले भी ठीक होते हैं . 

प्रमेह रोगों में इसकी कोमल पत्तियां प्रात:काल चबाकर निगल लें . ऊपर से पानी पी लें . इसकी फलियों को पकने से पहले सुखाकर पावडर बनाकर रख लें . इस पावडर का नियमित रूप से सेवन करने से सभी तरह की कमजोरी दूर होती हैं . टांसिल बढ़े हुए हों , या गायन में परेशानी हो रही हो तो इसकी पत्तियां +छाल उबालकर उसमें नमक मिलाकर गरारे करें . कफ , बलगम ,एलर्जी की समस्या हो तो इसकी छाल +लौंग +काली मिर्च +तुलसी को मिलाकर काढ़ा बनाकर पीयें . 

lever की समस्या है तो इसकी फलियों का पावडर +मुलेठी +आंवला मिलाकर , काढ़ा बनाकर पीयें . Colitis या amoebisis होने पर कुटज +बबूल की छाल का काढ़ा लें . Periods की समस्या हो तो कीकर की छाल का काढ़ा पीयें .

मेदा, महामेदा

मेदा महामेदा पहाड़ों पर पाने वाली शक्तिवर्धक जड़ी बूटी हैं . ये हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों में पाई जाती हैं . मेदा की बिनामुड़ी सीधी सीधी पत्तियां होती हैं , जबकि महामेदा की पीछे की और मुडी हुई पत्तियाँ होती हैं . इसके अदरक जैसे कंद होते हैं . मेदा के बड़े कांड होते हैं और महामेदा के पतले कंद होते हैं . यह जीवन बढ़ाने वाली और बुढ़ापा रोकने वाली औषधि है . इसके कंद को सुखाकर इसका पावडर लिया जाता है . यह शक्तिवर्धक होती है और कमजोरी को दूर भगाती है . इससे खांसी भी दूर होती है . च्यवनप्राश में डाले जाने वाले अष्टवर्ग में यह भी शामिल है . च्यवन ऋषि भी इस औषधि को खाकर जवान हुए थे . यह यौनजनित विकृतियाँ भी दूर करती है . इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढती है . इसके कंद को सुखाकर , बराबर की मिश्री मिलाकर , 2-3 ग्राम की मात्रा में दूध के साथ लिया जा सकता है . इसको लेने से बुढापे के रोग नहीं होते .

क्षीर काकोली

क्षीर काकोली (lilium polyphyllum)

षीर काकोली भी च्यवनप्राश में डाले जाने वाला मुख्य घटक है . यह भी मेदा महामेदा की तरह अष्टवर्ग का एक हिस्सा है . यह हिमालय पर बहुत ऊंचाई पर पाया जाता है . यह बहुत दुर्लभ पौधा है . पर्वतों पर रहने वाले लोग इसे सालम गंठा कहते हैं . इस पर सुन्दर सफ़ेद रंग के फूल आते हैं . इसे अंग्रेजी में white lily भी कहते हैं . इसका कंद बाहर से सफेद लहसुन की तरह लगता है और अन्दर से प्याज की तरह परतें होती हैं . इसका कंद सुखाकर इसका पावडर कर लिया जाता है . 

इसे कायाकल्प रसायन भी कहा गया है . हजारों सालों से हिमालय पर रहने वाले संत महात्मा इसका प्रयोग करते रहे हैं और आज भी करते हैं . इसका थोड़ा सा ही पावडर दूध के साथ लेने से कफ , बलगम खत्म हो जाता है . लीवर ठीक हो जाता है . यह रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाता है . यह कमजोर और रोगियों को स्वस्थ करता है . शीतकाल में इसके प्रयोग से ठण्ड कम लगती है . इसको लेने से ताकत आती है . खाना कम भी मिले ; तब भी ताकत बनी रहती है . पहाड़ों पर ऊपर चढ़ते समय सांस नहीं फूलता. यह बुढ़ापे को रोकने में मदद करती है .

च्यवन ऋषि ने इस पौधे का प्रयोग भी किया था और तरुणाई वापिस पाई थी . यह वास्तव में जीवनी शक्ति प्रदान करने वाली एक दुर्लभ जड़ी बूटियों में से एक है .

सतावर

सतावर (वानस्पतिक नाम: Asparagus racemosus / ऐस्पेरेगस रेसीमोसस) लिलिएसी कुल का एक औषधीय गुणों वाला पादप है। इसे 'शतावर', 'शतावरी', 'सतावरी', 'सतमूल' और 'सतमूली' के नाम से भी जाना जाता है। यह भारत, श्री लंका तथा पूरे हिमालयी क्षेत्र में उगता है। इसका पौधा अनेक शाखाओं से युक्त काँटेदार लता के रूप में एक मीटर से दो मीटर तक लम्बा होता है। इसकी जड़ें गुच्छों के रूप में होतीं हैं। वर्तमान समय में इस पौधे पर लुप्त होने का खतरा है। 

एक और काँटे रहित जाति हिमलाय में 4 से 9 हजार फीट की ऊँचाई तक मिलती है, जिसे एस्पेरेगस फिलिसिनस नाम से जाना जाता है। 

यह 1 से 2 मीटर तक लंबी बेल होती है जो हर तरह के जंगलों और मैदानी इलाकों में पाई जाती है। आयुर्वेद में इसे ‘औषधियों की रानी’ माना जाता है। इसकी गांठ या कंद का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें जो महत्वपूर्ण रासायनिक घटक पाए जाते हैं वे हैं ऐस्मेरेगेमीन ए नामक पॉलिसाइक्लिक एल्कालॉइड, स्टेराइडल सैपोनिन, शैटेवैरोसाइड ए, शैटेवैरोसाइड बी, फिलियास्पैरोसाइड सी और आइसोफ्लेवोंस। सतावर का इस्तेमाल दर्द कम करने, महिलाओं में स्तन्य (दूध) की मात्रा बढ़ाने, मूत्र विसर्जनं के समय होने वाली जलन को कम करने और कामोत्तेजक के रुप में किया जाता है। इसकी जड़ तंत्रिका प्रणाली और पाचन तंत्र की बीमारियों के इलाज, ट्यूमर, गले के संक्रमण, ब्रोंकाइटिस और कमजोरी में फायदेमंद होती है। यह पौधा कम भूख लगने व अनिद्रा की बीमारी में भी फायदेमंद है। अतिसक्रिय बच्चों और ऐसे लोगों को जिनका वजन कम है, उन्हें भी ऐस्पैरेगस से फायदा होता है। इसे महिलाओं के लिए एक बढ़िया टॉनिक माना जाता है। इसका इस्तेमाल कामोत्तेजना की कमी और पुरुषों व महिलाओं में बांझपन को दूर करने और रजोनिवृत्ति के लक्षणों के इलाज में भी होता है।

बिल्व

बिल्व (इगल मार्मेलोज)

कहा गया है- 'रोगान बिलत्ति-भिनत्ति इति बिल्व ।' अर्थात् रोगों को नष्ट करने की क्षमता के कारण बेल को बिल्व कहा गया है । इसके अन्य नाम हैं-शाण्डिल्रू (पीड़ा निवारक), श्री फल, सदाफल इत्यादि । मज्जा 'बल्वकर्कटी' कहलाती है तथा सूखा गूदा बेलगिरी । 

वानस्पतिक परिचय-

सारे भारत में विशेषतः हिमालय की तराई में, सूखे पहाड़ी क्षेत्रों में 4 हजार फीट की ऊँचाई तक पाया जाता है । मध्य व दक्षिण भारत में बेल जंगल के रूप में फैला पाया जाता है । मध्य व दक्षिण भारत में बेल जंगल के रूप में फैला पाया जाता है । आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण इसे मंदिरों के पास लगाया जाता है । 15 से 30 फीट ऊँचे कँटीले वृक्ष फलों से लदे अलग ही पहचान में आ जाते हैं । पत्ते संयुक्त विपत्रक व गंध युक्त होते हैं । स्वाद में वे तीखे होते हैं । गर्मियों में पत्ते गिर जाते हैं तथा मई में नए पुष्प आ जाते हैं । फल अलगे वर्ष मार्च से मई के बीच आ जाते हैं । फूल हरी आभा लिए सफेद रंग के होते हैं । सुगंध इनकी मन को भाने वाली होती है । फल 5 से 17 सेण्टीमीटर व्यास के होते हैं । खोल (शेल) कड़ा व चिकना होता है । पकने पर हरे से सुनहरे पीले रंग का हो जाता है । खोल को तोड़ने पर मीठा रेशेदार सुगंधित गूदा निकलता है । बीज छोटे, बड़े व कई होते हैं । बाजार में दो प्रकार के बेल मिलते हैं- छोटे जंगली और बड़े उगाए हुए । दोनों के गुण समान हैं । जंगलों में फल छोटा व काँटे अधिक तथा उगाए गए फलों में फल बड़ा व काँटे कम होते हैं । 

शुद्धाशुद्ध परीक्षा पहचान-

बेल का फल अलग से पहचान में आ जाता है । इसकी अनुप्रस्थ काट करने पर यह 10-15 खण्डों में विभक्त सा मालूम होता है, जिनमें प्रत्येक में 6 से 10 बीज होते हैं । ये सभी बीज सफेद लुआव से परस्पर जुड़े होते हैं । प्रायः सर्वसुलभ होने से इसमें मिलावट कम होती है । कभी-कभी इसमें गार्मीनिया मेंगोस्टना तथा कैथ के फल मिला दिए जाते हैं, परन्तु इसे काट कर इसकी परीक्षा की जा सकती है । 

संग्रह-संरक्षण एवं कालावधि-

छोटे कच्चे बेल के फलों का संग्रह कर, उन्हें अच्छी तरह छीलकर गोल-गोल कतरे नुमा टुकड़े काटकर सुखाकर मुख बंद डिब्बों में नमी रहती शीतल स्थान में रखना चाहिए । औषधि प्रयोग हेतु जंगली बेल ही प्रयुक्त होते हैं । खाने, शर्बत आदि के लिए ग्राम्य या लाए हुए फल ही प्रयुक्त होते हैं । इनकी वीर्य कालावधि लगभग एक वर्ष है । 

गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत- 

आचार्य चरक और सुश्रुत दोनों ने ही बेल को उत्तम संग्राही बताया है । फल-वात शामक मानते हुए इसे ग्राही गुण के कारण पाचन संस्थान के लिए समर्थ औषधि माना गया है । आर्युवेद के अनेक औषधीय गुणों एवं योगों में बेल का महत्त्व बताया गया है, परन्तु एकाकी बिल्व, चूर्ण, मूलत्वक्, पत्र स्वरस भी बहुत अधिक लाभदायक है । 

चक्रदत्त बेल को पुरानी पेचिश, दस्तों और बवासीर में बहुत अधिक लाभकारी मानते हैं । बंगसेन एवं भाव प्रकाश ने भी इसे आँतों के रोगों में लाभकारी पाया है । डॉ. खोटी लिखते हैं कि बेल का फल बवासीर रोकता व कब्ज की आदत को तोड़ता है । आँतों की कार्य क्षमता बढ़ती है, भूख सुधरती है एवं इन्द्रियों को बल मिलता है । 

डॉ. नादकर्णी ने इसे गेस्ट्रोएण्टेटाइटिस एवं हैजे के ऐपीडेमिक प्रकोपो (महामारी) में अत्यंत उपयोगी अचूक औषधि माना है । विषाणु के प्रभाव को निरस्त करने तक की इसमें क्षमता है । डॉ. डिमक के अनुसार बेल का फल कच्ची व पकी दोनों ही अवस्थाओं में आँतों को लाभ करता है । कच्चा या अधपका फल गुण में कषाय (एस्ट्रोन्जेण्ट) होता है तथा अपने टैनिन एवं श्लेष्म (म्यूसीलेज) के कारण दस्त में लाभ करता है । पुरानी पेचिस, अल्सरेटिव कोलाइटिस जैसे जीर्ण असाध्य रोग में भी यह लाभ करता है । पका फल, हलका रेचक होता है । रोग निवारक ही नहीं यह स्वास्थ्य संवर्धक भी है । 

अन्य उपयोग-

आँखों के रोगों में पत्र स्वरस, उन्माद-अनिद्रा में मूल का चूर्ण, हृदय की अनियमितता में फल, शोथ रोगों में पत्र स्वरस का प्रयोग होता है । श्वांस रोगों में एवं मधुमेह निवारण हेतु भी पत्र का स्वरस सफलतापूर्वक प्रयुक्त होता है । विषम ज्वरों के लिए मूल का चूर्ण व पत्र स्वरस उपयोगी है । सामान्य दुर्बलता के लिए टॉनिक के समान प्रयोग करने के लिए बेल का उपयोग पुराने समय से ही होता आ रहा है । समस्त नाड़ी संस्थान को यह शक्ति देता है तथा कफ-वात के प्रकोपों को शांत करता है ।

पीपल

पीपल के औषधीय गुण

भारतीय जड़ी बूटियां अपने गुणों में अद्धुत है। इनमें तथा पेड़-पौधों में परमात्मा ने दिव्य शक्तियां भर दी हैं। भारतीय वन संम्पदा के गुणों और रहस्यों को जानकर विश्व आश्चर्य चकित रह जाता है। भारतीय जड़ी बूटियों से मनुष्य का कायाकल्प हो सकता है। खोया हुआ स्वास्थ्य एवं यौवन पुनः लौट सकता है। भयंकर से भयंकर रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है तथा आयु को लम्बा किया जा स्कता है। आवश्यकता है, इनके गुणों का मनन-चिन्तन कर इनके उचित उपयोग की। पीपल के वृक्षों में अनेक औषधीय गुण हैं तथा इसके औषधीय गुणों को बहुत कम लोग जानते हैं। जो गुणी होता है, लोग उसका आदर करते ही हैं। लोग उसे पूजते हैं। 

भारत में उपलब्ध विविध वृक्षों में जितना अधिक धार्मिक एवं औषधीय महत्त्व पीपल का है, अन्य किसी वृक्ष का नहीं है। यही नहीं पीपल निरंतर दूषित गैसों का विषपान करता रहता है। ठीक वैसे ही जैसे शिव ने विषपान किया था। 

पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी वृक्षों में पीपल को प्राणवायु यानी ऑक्सीजन को शुद्ध करने वाले वृक्षों में सर्वोत्तम माना जा सकता है, पीपल ही एक ऐसा वृक्ष है, जो चौबीसों घंटे ऑक्सीजन देता है। जबकि अन्य वृक्ष रात को कार्बन-डाइ-आक्साइड या नाइट्रोजन छोड़ते है। इस वृक्ष का सबसे बड़ा उपयोग पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने में किया जा सकता है, क्योंकि यह प्राणवायु प्रदान कर वायुमण्डल को शुद्ध करता है और इसी गुणवत्ता के कारण भारतीय शास्त्रों ने इस वृक्ष को सम्मान दिया। पीपल के जितने ज़्यादा वृक्ष होंगे, वायुमण्डल उतना ही ज़्यादा शुद्ध होगा। पीपल के नीचे ली हुई श्वास ताजगी प्रदान करती है, बुद्धि तेज करती है। 

पीपल के नीचे रहने वाले लोग बुद्धिमान, निरोगी और दीर्घायु होते हैं। गांवों में प्रत्येक घर तथा मन्दिर के पास आपको पीपल या नीम का वृक्ष मिल जायेगा। पीपल पर्यावरण को शुद्ध करता है तथा नीम हमारा गृह चिकित्सक है। नीम से हमारी कितनी ही व्याधियां दूर हो जाती है। आज पर्यावरण को शुद्ध रखना हमारी प्राथमिकता है। 

सभी मौसम में पीपल का औषधि रूप समान रहता है। बच्चे से लेकर वृद्धों तक यह सभी के लिए लाभदायक है। आयुर्वेद में भी पीपल का कई औषधि के रूप में प्रयोग होता है। श्वास, तपेदिक, रक्त-पित्त विषदाह भूख बढ़ाने के लिए यह वरदान है। शास्त्रों में भी पीपल को बहुपयोगी माना गया है तथा उसको धार्मिक महत्त्व बनाकर उसको काटने का निषेध किया गया हमारे पूर्वजों की हमारे ऊपर यह विशेष कृपा है। इस प्रकार पीपल अपने धार्मिक औषधि एवं सामाजिक गुणों के कारण सभी के लिए वंदनीय है। पीपल न केवल एक पूजनीय वृक्ष है बल्कि इसके वृक्ष खाल, तना, पत्ते तथा बीज आयुर्वेद की अनुपम देन भी है। पीपल को निघन्टु शास्त्र ने ऐसी अजर अमर बूटी का नाम दिया है, जिसके सेवन से वात रोग, कफ रोग और पित्त रोग नष्ट होते हैं। संभवतः इतिज मासिक या गर्भाशय संबंधी स्त्री जनित रोगों में पीपल का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। पीपल की लंबी आयु के कारण ही बहुधा इसमें दाढ़ी निकल आती हैं। इस दाढ़ी का आयुर्वेद में शिशु माताजन्य रोग में अद्भुत प्रयोग होता है। पीपल की जड़, शाखाएं, पत्ते, फल, छाल व पत्ते तोड़ने पर डंठल से उत्पन्न स्राव या तने व शाखा से रिसते गोंद की बहुमूल्य उपयोगिता सिद्ध हुई है। 

पीपल रोगों का विनाश करता है। पीपल के औषधीय गुण का उल्लेख सुश्रुत संहिता, चरक संहिता में किया गया है। पीपल फेफड़ों के रोग जैसे तपेदिक, अस्थमा, खांसी तथा कुष्ठ, प्लेग, भगन्दर आदि रोगों पर बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ है। इसके अलावा रतौंधि, मलेरिया ज्वर, कान दर्द या बहरापन, खांसी, बांझपन, महिने की गड़बड़ी, सर्दी सरदर्द सभी में पीपल औषधि के रूप में प्रयोग होता है। 

पीपल का वृक्ष रक्तपित्त और कफ के रोगों को दूर करने वाला होता है। पीपल की छाया बहुत शीतल और सुखद होती है। इसके पत्ते कोमल, चिकने और हरे रंग के होते हैं जो आंखों को बहुत सुहावने लगते हैं। 

औषधि के रूप में इसके पत्र, त्वक्, फल, बीज और दुग्ध व लकड़ी आदि इसका प्रत्येक अंग और अंश हितकारी लाभकारी और गुणकारी होता है। सांप और बिच्छु का विष उतारने में पीपल की लकडिय़ों का प्रयोग होता है। 

पीपल को सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय माना जा सकता है। किसी भी रोग में पीपल के उपयोग से पूर्व किसी आयुर्वेदाचार्य या विशेषज्ञ से सलाह के बाद ही इसका उपयोग करें। 

पीपल वृक्ष के पके हुए फल हृदय रोगों को शीतलता और शांति देने वाले होते हैं। इसके साथ ही पित्त, रक्त और कफ के दोष को दूर करने वाले गुण भी इनमें निहित हैं। दाह, वमन, शोथ, अरूचि आदि रोगों में यह रामबाण है। पीपल का फल पाचक, आनुलोमिक, संकोच, विकास-प्रतिबंधक और रक्त शोषक है। पीपल के सूखे फल दमे के रोग को दूर करने में काफ़ी लाभकारी साबित हुआ है। महिलाओं में बांझपन को दूर करने और सन्तानोत्पत्ति में इसके फलों का सफल प्रयोग किया गया है। 

पीपल का दूध (क्षीर) अति शीघ्र रक्तशोधक, वेदनानाशक, शोषहर होता है। दूध का रंग सफ़ेद होता है। पीपल का दूध आंखों के अनेक रोगों को दूर करता है। पीपल के पत्ते या टहनी तोड़ने से जो दूध निकलता है उसे थोड़ी मात्रा में प्रतिदिन सलाई से लगाने पर आँखों के रोग जैसे पानी आना, मल बहना, फोला, आंखों में दर्द और आंखों की लाली आदि रोगों में आराम मिलता है। 

इसकी छाल का रस या दूध लगाने से पैरों की बिवाई ठीक हो जाती है। 

पीपल की छाल स्तम्भक, रक्त संग्राहक और पौष्टिक होती है। सुजाक में पीपल की छाल का उपयोग किया जाता है। इसके छाल के अंदर फोड़ों को पकाने के तत्व भी होते हैं। इसकी छाल के शीत निर्यास का इस्तेमाल गीली खुजली को दूर करने में भी किया जाता है। पीपल की छाल के चूर्ण का मरहम एक शोषक वस्तु के समान सूजन पर लगाया जाता है। इसकी ताजा जलाई हुई छाल की राख को पानी में घोलकर और उसके निथरे हुए जल को पिलाने से भयंकर हिचकी भी रूक जाती है। इसके छाल का चूर्ण भगन्दर रोग को भगाने में किया जाता है। 

श्रीलंका में तो इसके छाल का रस दांत मसूड़ों की दर्द को दूर करने में कुल्ले के रूप में किया जाता है। यूनानी मत में पीपल की छाल को कब्ज करने वाली माना गया है। इसकी ताजा छाल को जल में भिगोकर कमर में बांघने से ताकत आती है। 

यूनानी चिकित्सा में इसके छाल को वीर्य वर्धक माना गया है। इसका अर्क ख़ून को साफ़ करता है। इसकी छाल का क्वाथ पीने से पेशाब की जलन, पुराना सुजाक और हडडी की जलन मिटने की बात कही गयी है। 

पीपल की अन्तरछाल (छाल के अन्दर का भाग) निकालकर सुखा लें और कूट-पीसकर खूब महीन चूर्ण कर लें, यह चूर्ण दमा रोगी को देने से दमा में आराम मिलता है। पूर्णिमा की रात को खीर बनाकर उसमें यह चूर्ण बुरककर खीर को 4-5 घंटे चन्द्रमा की किरणों में रखें, इससे खीर में ऐसे औषधीय तत्व आ जाते हैं कि दमा रोगी को बहुत आराम मिलता है। इसके सेवन का समय पूर्णिमा की रात को माना जाता है। 

पीपल की छाल को जलाकर राख कर लें, इसे एक कप पानी में घोलकर रख दें, जब राख नीचे बैठ जाए, तब पानी नितारकर पिलाने से हिचकी आना बंद हो जाता है। 

मसूड़ों की सूजन दूर करने के लिए इसकी छाल के काढ़े से कुल्ले करें। 

पीपल के पत्ते आनुलोमिक होते हैं। पीपल के पत्तों को गर्म करके सूजन पर बाधने से कुछ ही दिनों में सूजन उतर आता है। खांसी के रोग में पीपल के पत्तों को छाया में सुखाकर कूट- छानकर समान भागकर मिसरी मिला लें तथा कीकर का गोंद मिलाकर चने के आकार समान गोली बना ले। दिनभर में दो से तीन गोलियां कुछ दिनों तक चूसें, खांसी में आराम मिलेगा। 

पीपल की ताजी हरी पत्तियों को निचोड़कर उसका रस कान में डालने से कान दर्द दूर होता है। कुछ समय तक इसके नियमित सेवन से कान का बहरापन भी जाता रहता है। 

पीपल के सूखे पत्ते को खूब कूटें। जब पाउडर सा बन जाए, तब उसे कपड़े से छान लें। लगभग 5 ग्राम चूर्ण को दो चम्मच मधु मिलाकर एक महीना सुबह चाटने से दमा और खांसी में लाभ होता है। 

सर्दी के सिरदर्द के लिए सिर्फ़ पीपल की दो-चार कोमल पत्तियों को चूसें। दो-तीन बार ऎसा करने से सर्दी जुकाम में लाभ होना संभव है। 

पीपल के 4-5 कोमल, नरम पत्ते खूब चबा-चबाकर खाने से, इसकी छाल का काढ़ा बनाकर आधा कप मात्रा में पीने से दाद, खाज, खुजली आदि चर्म रोगों में आराम होता है। इसके पत्तों को जलाकर राख कर लें, यह राख घावों पर बुरकने से घाव ठीक हो जाते हैं। 

पीपल की टहनियों में से दातुन बना लें। प्रतिदिन पीपल का दातुन करने से लाभ होता है। यदि आप पित्त प्रकृति के हैं तो यह दातुन आपको विशेषकर लाभकारी होगा। पीपल के दातुन से दांतों के रोगों जैसे दांतों में कीड़ा लगना, मसूड़ों में सूजन, पीप या ख़ून निकलना, दांतों के पीलापन, दांत हिलना आदि में लाभ देता है। पीपल का दातुन मुंह की दुर्गंध को दूर करता है और साथ ही साथ आंखों की रोशनी भी बढ़ती है। 

पीपल की टहनी का दातुन कई दिनों तक करने से तथा उसको चूसने से मलेरिया बुखार उतर जाता है। 

पीलिया के रोगी को पीपल की नर्म टहनी (जो की पेंसिल जैसी पतली हो) के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर माला बना लें। यह माला पीलिया रोग के रोगी को एक सप्ताह धारण करवाने से पीलिया नष्ट हो जाता है। 

बहुत से लोगों को रात में दिखाई नहीं पड़ता। शाम का झुट-पुट फैलते ही आंखों के आगे अंधियारा सा छा जाता है। इसकी सहज औषधि है पीपल। पीपल की लकड़ी का एक टुकड़ा लेकर गोमूत्र के साथ उसे शिला पर पीसें। इसका अंजन दो-चार दिन आंखों में लगाने से रतौंधी में लाभ होता है। उपचार के लिए इसके उपयोग से पूर्व किसी विशेषज्ञ की सलाह ज़रूर लें।